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एक खिड़की खुलती है पार्क में

swabhimaan
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शाम के ६ बजे है .खिड़की खोलो तो सामने एक औरत छत पर कपडे सुख रही थी ,मुझे लगा सभी औरते लगभग एक जैसी ही होती है ,मशीन की तरह बस भावशून्य सी अपने घर को और बेहतर बनाने में लगी रहती है .घर के कार्यो की भागदौड़ में खुद को आईने में निहारना भी भूल जाती है .कुछ औरते बड़ी तेज़ी से पार्क में कदमताल करते हुए आगे बढ़ रहीथी तो कुछ मोबाइल से चिपकी झूमते हुए साडी दुनिया से बेखबर ,अपने आप में ही खोयी कदमताल कर रही है.५ से १० साल तक के बच्चे विभिन्न खेलो में व्यस्त थे .कुछ बुजुर्ग महिलाएं पार्क की बेंच पर निंदा रास का आनंद ले रही थी.आसमान साफ़ था ,सूर्यास्त होने को था, पक्षी अपने घरो को लौट रहे थे,ठंडी हवा का झोंका मुझे छूकर ऐसे गुजरा जैसे सपनो में खोयी राजकुमारी को जगाया हो हौले से .हवा ने मुझसे पूछा -“तुम कहा खोयी हो लौट आओ इस खूबसूरत दुनिया में” .मैंने मुस्कराकर कहा -अभी तो खुद की तलाश जारी है ,जिस दिन खुद को पा लुंगी ,उस दिन ये साडी दुनिया मेरी है .

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