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जिंदगी की कशमकश में कुछ ऐसे उलझे हम
कुछ दुनिया हमको भूल गयी
और कुछ दुनिया को भूल गए हम
कब दिन ढला , कब रात आयी
दैनिक कार्य -पिटारी में अपनी सुध ही भूल गए हम
गमो में भी मुस्करा दिए
जानबूझकर काँटों पर पग बढ़ा दिए
पर खुल के कब हसे
वो खिलखिलाहट तो भूल गए हम
जाने कैसी उलझी जिंदगी
सुलझाने में और उलझती गयी जिंदगी
फ़र्ज़ और जाने कितनी जिमेदारी
सीढ़ी-दर सीढ़ी मंजिल चढ़ी जिंदगी
गिरकर फिसली , फिर उठकर बढ़ चली जिंदगी
औरो को समझने में लगे रहे
उलझे रहे
पर खुद को ही न समझे हम
जिंदगी की कशमकश में कुछ ऐसे उलझे हम
खुशिया चारो ओर थी बिखरी
मन की ख़ुशी न समझे
ओए खु को ही नासमझे हम
हर ज़गह म्र्ग्मारिचिका से दोड़े हम
कितना दर्द देती है तन्हाई
ये जानकर किसी को तनहा न छोड़ा
बने सबका सहारा
सबको गले लगाया
पर फिर भी क्यों उस तन्हाई से दो चार हुए हम
मालूम था यह दुनिया एक छलावा है
फिर क्यों जानबूझकर खुद से ही छले गए हम
बस एक जिद थी थी दुनिया को अपना बनाने की
खुद से ही जितने की
पर न जाने क्यों अपनों से ही हर गए हम
शायद हम ही न समझे
जिंदगी बहुत खुबसूरत है
फिर भी येही कहेंगे हम
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